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रंगभूमि दमन के खिलाफ दृढ़ता का उपन्यास है। : प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल

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वाराणसी : हिंदी विभाग ,काशी हिंदू विश्वविद्यालय,वाराणसी में हो रहे त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन शुक्रवार को प्रथम अकादमिक सत्र की अध्यक्षता प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल ने की। मुख्य वक्ता के रूप में प्रो. हेमांशु सेन (लखनऊ विश्वविद्यालय) मंच पर उपस्थित रहीं। विशिष्ट वक्ता के रूप में प्रो. पुष्पिता अवस्थी (नीदरलैंड), डॉ. विवेकमणि त्रिपाठी (चीन), डॉ. आशीष कंधवे (म्यांमार) हमारे साथ ऑनलाइन माध्यम से जुड़े। कार्यक्रम का संचालन डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा ने किया। 

सम्पन्न विकास व विपन्न विस्थापन के बीच की संघर्ष कथा है' रंगभूमि'
दूसरे सत्र की अध्यक्षता कर रहे हिन्दी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आचार्य प्रो श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि प्रेमचंद के फटे जूते इसीलिए थे क्योंकि उन्होंने लगातार रूढ़ियों को, सामाजिक जड़ता और सामंतवाद को ठोकरें मारी हैं। रंगभूमि सामाजिक जड़ता, साम्राज्यवाद,सामंतवाद पर लगातार ठोकर मारती जा रही प्रक्रिया की परिणति है। सम्पन्न विकास व विपन्न विस्थापन के बीच की संघर्ष कथा है' रंगभूमि'। प्रेमचंद आरंभ से लेकर अंत तक अपनी रचनाओं में निष्कर्ष नहीं देते हैं, वो स्थितियों को रख देते हैं और संकेत में यह बताना चाहते हैं कि उनकी क्या पक्षधरता है। प्रेमचंद अपने पाठक को भीतर तक आंदोलित कर देते हैं। प्रेमचंद ने मध्यकाल की विरासत और पूरी परंपरा को लेकर जनता के मन को प्रभावित करने का प्रयास किया। 'रंगभूमि' उपनिवेशवाद के भीतर उद्योगों के विकास और गरीबों के संघर्ष के भीतर विकसित हुआ है। 'रंगभूमि' का पात्र सूरदास जितना इतिहास के भीतर है उससे अधिक इतिहास से बाहर है। भारतीय समाज को जीवित सूरदास उतना प्रभावित नहीं कर सका जितना मृत सूरदास इसमें सक्षम रहा। स्वाधीनता के आस्वाद से प्रेमचंद भारतीय जनता को जोड़ना चाहते थे, सूरदास उसका शिखर बिंदु है। 'रंगभूमि' दमन के ख़िलाफ़ दृढ़ता का उपन्यास है। प्रेमचंद सामाजिक मुद्दों के ज्वलंत रचनाकार हैं। 
गर्व करने योग्य है काशी
प्रो. हेमांशु सेन ने कहा कि साहित्य का इतिहास उठाकर देखे तो काशी गर्व करने योग्य है। हिंदी साहित्य एक समृद्ध परंपरा को लेकर चला है। प्रेमचंद के पात्रों नें हमारे बचपन को संवारा। एक समय था जब दर्शन समाज को दिशा देता था, आज दर्शन के साथ साहित्य भी समाज को दिशा देता है। प्रेमचंद का साहित्य अपने समय की गुलामी और समस्या को दिखता है। प्रेमचंद ने साहित्य मे सत्य और मानवीय संवेदना को दिखाया है। 
काशी के ज्ञान की गंगा मे पूरा विश्व स्नान कर रहा है
प्रो. पुष्पिता अवस्थी ने नीदरलैंड में प्रेमचंद के महत्व से हमें रूबरू करवाया। कैरिबियाई देशों मे अपनी यात्रा की भी चर्चा करते हुए नीदरलैंड और सूरीनाम की भी चर्चा की। काशी के इतिहास को याद करते हुए उन्होंने कहा कि काशी के ज्ञान की गंगा मे पूरा विश्व स्नान कर रहा है। 
समाज को समझने का सबसे अच्छा माध्यम साहित्य है।
डॉ. विवेक मणि त्रिपाठी ने कहा कि समाज को समझने का सबसे अच्छा माध्यम साहित्य है। साहित्य जीवंत इतिहास होता है। तुलसीदास की प्रासंगिकता का मुख्य कारण है कि उन्होंने साहित्य को लोक से जोड़ा। प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति को बचाने का प्रयास किया। इन्होंने भारतीय संस्कृति को जिस तरह से जिया है शायद ही कोई वैसा लेखक होगा। हमें अपनी लोक भाषा, लोक संस्कृति पर गर्व करना चाहिए। 
साहित्य के मध्यम से शोषण का जागरण करते थे प्रेमचंद
डॉ. आशीष कंधवे ने कहा कि प्रेमचंद साहित्य के मध्यम से शोषण का जागरण तो करते ही हैं साथ ही उपनिवेश को भी केंद्र मे लाने का कार्य किया है। उन्होंने म्यांमार में साहित्य की वर्तमान स्थिति और रचनात्मकता को लेकर अपनी चिंता प्रकट की। इस सत्र का कुशल संचालन डॉ महेंद्र कुशवाहा ने किया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ नीलम कुमारी ने दिया।

"औपनिवेशिक भारत और रंगभूमि" पर विद्वानों ने रखे अपने विचार

द्वितीय अकादमिक सत्र में विषय "औपनिवेशिक भारत और रंगभूमि" पर विद्वानों ने अपने विचार रखे। इस संगोष्ठी के द्वितीय दिन के दूसरे सत्र में अल्का पांडेय ने कहा कि प्रेमचन्द एक व्यक्ति नहीं हैं बल्कि एक संस्था हैं। औपनिवेशिक भारत और रंगभूमि में समस्या दर्ज़ है वो वर्तमान में पूरे देश की समस्या है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है जो हमें प्रेमचंद जी के यहां सही साबित होते दिखता है।
बग़ैर दृढ़ शक्ति के देश की आज़ादी मुमकिन नहीं।
इलाहबाद विश्व विद्यालय से बनारस आये डॉ विनम्र सेन सिंह ने कहा कि सबसे स्थाई अगर हिंदी साहित्य को कोई गद्य दिया है तो वो प्रेमचंद ने दिया हैं। प्रेमचंद ने सूरदास के माध्यम से भारत को एक नया पक्ष दिया है। उन्होंने आगे कहा कि गांधी का आदर्शवादी रूप ही है जो सूरदास के माध्यम से प्रेमचंद के यहाँ दिखाई देता है, दरअसल सूरदास प्रेमचंद के कल्पना का गाँधी है। रंगभूमि के सूरदास में जो दृढ़ संकल्प था उसके माध्यम से ये भी स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद ये बताना चाहते हैं कि बग़ैर दृढ़ शक्ति के देश की आज़ादी मुमकिन नहीं। इस उपन्यास में धर्म का प्रतीक सूरदास है जबकि पूंजीवादी का प्रतीक जॉन सेवक है। सूरदास की भावना भगत सिंह के भावना से कम नहीं है। सूरदास और रंगभूमि की कथा पराजय की कथा नहीं है ये मानवीय मूल्यों की कथा है।
औपनिवेशिक भारत का दर्पण है रंगभूमि उपन्यास
हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के आचार्य प्रो सत्यपाल शर्मा ने कहा कि बीसवीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक की बात करें तो सूरदास चरित्र के पीछे औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ विरोध है प्रेमचंद का रंगभूमि उपन्यास। आज के दौर में हमें यह समझना होगा कि पूँजीवाद, सामंतवाद से ज़्यादा खतरनाक है। रंगभूमि को पढ़ते हुए लगता है औपनिवेशिक भारत का दर्पण है रंगभूमि उपन्यास। 
उपन्यास के माध्यम से तीन धर्मो के बीच मेल कराने का किया गया प्रयास
द्वितीय सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो० कृष्ण मोहन ने कहा कि तीसरी दुनिया के देश में जो उपन्यास लिखे गए हैं उनमें रंगभूमि एक राष्ट्रीय उपन्यास है। राष्ट्रीय चेतना और आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की प्रवृत्ति प्रेमचन्द का प्रिय विषय रहा है। प्रेमचंद जी ने इस उपन्यास के माध्यम से तात्कालीन भारत में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई का मेल कराने की कोशिश की है। रंगभूमि को एक राष्ट्रीय रूपक की तरह देखना चाहिए। रंगभूमि के माध्यम से प्रेमचंद ये दिखाने का प्रयास करते हैं कि जिनका खेतों पर अधिकार होगा उनका उत्पादन पर अधिकार होगा। दूसरे सत्र का संचालन डॉ राजकुमार मीणा ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन डॉ हरीश यादव जी ने दिया।
रंगभूमि में किसान, भूमि एवं अन्य समस्याएँ
तीसरे अकादमिक सत्र जिसका विषय था : “रंगभूमि में किसान, भूमि एवं अन्य समस्याएँ” मुख्य वक्ता नेपाल से पधारे प्रो. अजीत खनाल ने बताया कि कहा कि प्रेमचंद उपन्यास को मानव चरित्र का विकास मानते थे। उनका कहना था कि मानव चरित्र के रहस्यों को खोल देना उपन्यास का मुख्य काम है। मानव जब जन्म लेता है तो भी द्वंद्व में रहता है। उसका पहली बार रोना भी उसके संघर्ष को प्रकट करता है। प्रेमचंद की साहित्यिक कृतियां उनके द्वारा स्थापित मूल्यों पर खरी उतरती है।
एक भविष्यद्रष्टा लेखक थे मुंशी प्रेमचन्द 
इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. नीरज खरे ने कहा कि प्रेमचंद देशज अस्मिता के खतरे के प्रति सजग थे; क्योंकि प्रेमचंद एक भविष्यद्रष्टा लेखक थे। सूरदास देशज अस्मिता को बचाने वाला पात्र है। इन्होंने ग्रामीण अस्मिता एवं निम्नवर्गीय जीवन जीने वाले मनुष्यों के सपनों के संघर्षों के बारे में चर्चा की। प्रेमचंद के उपन्यास महावृतांत हैं।
साहित्य प्रतीकात्मक सांस्कृतिक कार्यवाही है
विशिष्ट वक्ता डॉ. रामाज्ञा शशिधर ने कहा कि भारतीय उपन्यास यदि राष्ट्रीय रूपक है तो आख्यान उसका प्राणतत्व है, कल्पना उसका सृजनात्मक पक्ष है। भारतीय उपन्यास के केन्द्र में ग्राम है, ग्रामीण संवेदनाएं हैं, हाशिए की संवेदना है। भारतीय उपन्यास में मध्यवर्ग फ़ैशन के रूप में बहुत बाद में आया। उत्तर औपनिवेशिकता के दौर में आपको तरह तरह के विमर्श मिलेंगे लेकिन किसान विमर्श देखने को नहीं मिलेगा क्योंकि कॉरपोरेट सत्ता के साथ गठबंधन करके किसानों को ख़त्म करने का षड्यंत्र चल रहा है। अंग्रेजों ने हमारा विऔपनिवेशीकरण किया और हमें सपाट कर दिया। सूरदास अपनी ज़मीन के साथ है। गाँधी कई तरह की लड़ाईयां लड़ते हैं लेकिन जमींदारों के खिलाफ़ नहीं लड़ते, इसके खिलाफ़ लड़ते हैं प्रेमचंद। “साहित्य प्रतीकात्मक सांस्कृतिक कार्यवाही है।”

"औपनिवेशिक सत्ता स्थापित होने के पूर्व भी भारत में किसानों की जमीनें हड़पे जाने के कई प्रमाण मिले है"

डॉ. किंगसन पटेल ने रंगभूमि में किसानों की समस्या की तरफ ध्यान केंद्रित करते हुऐ बताया कि औपनिवेशिक सत्ता स्थापित होने के पूर्व भी भारत में किसानों की जमीनें हड़पे जाने के प्रमाण मिलते हैं। ‘सवासेर गेहूं’ कहानी में शंकर का जमीन कोई विदेशी सत्ता नहीं हड़प रहा बल्कि। इसी देश का महाजन पंडित हड़प रहा है। उपनिवेशवाद के दौर में वही जमीनें छीनी गई जिसके माध्यम से पूंजीपतियों को बड़ा मुनाफा हो रहा था। सूरदास की ज़मीन भी इसी तरह की जमीन है। इस सत्र का संचालन कर रहे डॉ. प्रभात कुमार मिश्र कहते हैं प्रेमचंद ने सूरदास रचा, सूरदास को बनाया लेकिन उसे अंधा नहीं माना। उसकी बाह्य दृष्टि बंद है लेकिन अंतर्दृष्टि खुली हुई है। सूरदास एक ऐसे इलाके में रह रहा है जो शहर के नज़दीक का इलाका है गांव नहीं है जहां शहर की रोशनी नहीं पहुंच रही है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए। हिंदी विभाग की सहायक आचार्या डॉ. प्रियंका सोनकर ने अपने अलहदे अंदाज़ में धन्यवाद ज्ञापित किया। 
कौन कौन हुए शामिल
वैचारिक व्याख्यानों के बाद संध्या में काव्य गोष्ठी का सफल आयोजन हुआ जिसमें डॉ. अशोक सिंह, शिवकुमार पराग, डॉ. सुशांत शर्मा, डॉ. कमलेश राय, सुरेन्द्र कुमार वाजपेयी, रचना शर्मा, धर्मेंद्र गुप्त साहिल, डॉ. विनम्र सेन सिंह कवियों ने अपने काव्यपाठ से श्रोताओं मंत्रमुग्ध कर दिया। इस सत्र का संचालन सत्यप्रकाश सिंह ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ राजकुमार मीणा ने किया। शोधार्थियों दिव्या शुक्ला, ममता यादव और मेवालाल ने अपना शोध-पत्र वाचन किया। इस अवसर पर हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो वशिष्ठ द्विवेदी, सभी शिक्षक तथा छात्रा-छात्राएं उपस्थित रहें। लेख प्रस्तुति-दिव्या शुक्ला, पूजा कुमारी, रौशनी 'धीरा', एवं आफरीन बानो।

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